हाथों मैं मेरी भी लकिरे हैं
कुछ गहरी कुछ हलकी
कुछ टेढ़ी कुछ सीधी
कुछ कह्ती हैं मेरी भी रेखाएँ
कभी हाथ में हथौड़ा
कभी टेबल साफ करने का कपड़ा
चंद सिक्कों के लिये
मैने ना जाने क्या क्या ना पकड़ा
साफ करते करते कार के शीशे
कितने ही रोज़ बीते
सावन संग सपने भीगे
गर्मी सर्दी के भी मौसम बीते
कह्ते हैं बदल जाती हैं लकीरें
बदल गयी अपनी भी तस्वीरे
अब रेल का सफर है
चाय- काफी हमसफर है
a b c अगर मैं भी जानता
क ख ग जो मैं लिख पाता
लिखता इन लकीरो की कहानी
लफ्जो में बाँध अपनी जुबानी
Saturday, December 3, 2011
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